जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

प्रतापनारायण मिश्र

प्रतापनारायण मिश्र आधुनिक हिंदी गद्य के निर्माताओं में प्रमुख स्थान रखते हैं। इनका जन्म उन्नाव जिले के ‘बैजे’ गाँव में 24 सितंबर 1856 को हुआ था। इनके पिता संकटाप्रसाद मिश्र अच्छे ज्योतिषी थे। इनके जन्म के कुछ समय पश्चात् इनके पिता सपरिवार कानपुर में आकर रहने लगे थे।

इनकी प्रारम्भिक शिक्षा कानपुर में हुई। इनके पिता इन्हें अपने पैतृक व्यवसाय में लगाना चाहते थे, परन्तु फक्कड़, मनमौजी और मस्त स्वभाव के मिश्र जी का मन नीरस ज्योतिष में न रमा। ये स्कूली शिक्षा का बन्धन भी स्वीकार नहीं कर सके; अत: घर पर ही स्वाध्याय द्वारा इन्होंने संस्कृत, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी तथा बाँग्ला भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।

मिश्र जी विपुल प्रतिभा और विविध रुचियों के धनी थे। साहित्यकार होने के साथ-साथ ये सामाजिक जीवन से भी जुड़े हुए थे। ये हाजिर-जवाबी और विनोदी स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थे। भारतेन्दु जी को ये अपना गुरु और आदर्श मानते थे। इन्होंने सदा ‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान’ का समर्थन किया और नवजागरण का सन्देश घर-घर तक पहुँचाने के लिए सन् 1883 ई० में ब्राह्मण’ नामक पत्र निकालना आरम्भ किया, जिसे घाटा उठाकर भी ये वर्षों तक चलाते रहे।

निधन 
6 जुलाई 1894 को 38 वर्ष की अल्प आयु में इनका निधन हो गया।

प्रमुख कृतियाँ

नाटक : हठी हम्मीर, कलि-कौतुक, भारत दुर्दशा, गौ संकट।

पद्य-नाटक : संगीत शाकुन्तला।

निबन्ध-संग्रह : निबन्ध नवनीत, प्रताप पीयूष तथा प्रताप समीक्षा।

प्रहसन : ज्वारी-खुआरी तथा समझदार की मौत।

काव्य-रचनाएँ एवं काव्य-संग्रह : मन की लहर, शृंगार-विलास लोकोक्ति-शतक, प्रेम-पुष्पावली, दंगल खण्ड, तृप्यन्ताम्, ब्राडला-स्वागत, मानस-विनोद, शैव-सर्वस्व प्रताप-लहरी, प्रताप संग्रह, रसखान, शतक।

इनकी सभी रचनाओं (पचास से भी अधिक) का संग्रह ‘प्रतापनारायण मिश्र ग्रन्थावली’ नाम से प्रकाशित किया गया है। इनके अतिरिक्त मिश्र जी ने 10 से अधिक उपन्यास, जीवन-चरित और नीति-ग्रन्थों के अनुवाद भी किये हैं। इनमें राधारानी, पंचामृत, कथामाला, चरिताष्टक, वचनावली, राजसिंह, अमरसिंह, इन्दिरा, देवी चौधरानी, कथा बाल-संगीत इत्यादि सम्मिलित हैं।

सम्पादन
ब्राह्मण एवं हिन्दुस्तान।

श्री प्रतापनारायण मिश्र आधुनिक हिन्दी-गद्य निर्माताओं की वृहत्त्रयी में से एक हैं और भारतेन्दु युग के साहित्यकारों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि मिश्र जी को न तो भारतेन्दु जी जैसे साधन मिले थे और न भट्ट जी जैसी लम्बी आयु; तथापि इन्होंने अपनी प्रतिभा व लगन से उस युग में महत्त्वपूर्ण स्थान पाया।

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दाँत

इस दो अक्षर के शब्द तथा इन थोड़ी-सी छोटी-छोटी हड्डियों में भी उस चतुर कारीगर ने यह कौशल दिखलाया है कि किसके मुँह में दाँत हैं जो पूरा-पूरा वर्णन कर सके । मुख की सारी शोभा और यावत् भोज्य पदार्थो का स्वाद इन्हीं पर निर्भर है। कवियों ने अलक ( जुल्फ ), भ्रू ( भौं ) तथा बरुनी आदि की छवि लिखने में बहुत - बहुत रीति से बाल की खाल निकाली है, पर सच पूछिए तो इन्हों को शोभा से सबकी शोभा है । जब दाँतों के बिना पला-सा मुँह निकल आता है, और चिबुक ( ठोड़ी ) एवं नासिका एक में मिल जाती हैं उस समय सारी सुघराई मिट्टी में मिल जाती है।

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